Sunday, March 11, 2018

शर्मसार होती इंसानियत..

इंसानियत का गिरता ग्राफ ...

आज का दिन वाकई एक काले दिन के रूप में याद किया जाना था. सबेरे जब समाचार पत्रों में इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले इस  समाचार ने ख़त्म होती मानवीय संवेदना का नंगा सच सबके सामने रख दिया और ये सब उस इंसान ने किया जो एक ऐसे पेशे में है जो इंसान की जान बचाने के लिए भगवान् के दर्जे से नवाज़ा जाता है. झाँसी के मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों की बेहद अमानवीय तस्वीर जब सामने आई जब एक बस कंडक्टर की एक सड़क दुर्घटना में टांग कट गई और उसकी कटी टांग का उन्होंने तकिया बनाकर उसके सिर के नीचे रख दिया. और उसे घंटों स्ट्रेचर पर लिटाये रखा और बहुत जद्दोजहद के बाद उसके लिए बेड का इंतजाम हुआ और उसकी गंभीर हालत जे बावजूद काफी देर बाद उसका इलाज किया गया.
  ये चित्र इतना लोमहर्षक है कि देखकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं पर इस कंडक्टर के साथ इतना संवेदनहीन और दरंदिगी से भरा व्यवहार करने वाले डॉक्टर के अन्दर का इंसान तो सचमुच मर चुका है. मीडिया दिन भर इसी न्यूज़ की क्लिपिंग चलाकर अपनी-अपनी चैनल की रेटिंग बढाने की कोशिश में लगी रही...उनके लिए ये आज के दिन की सनसनीखेज न्यूज़ थी और कल सब भूल चुके होंगे और मीडिया भी भूल जायेगा कि आने वाले कल के बाद उस कंडक्टर का क्या होगा. आज तो सब उस डॉक्टर को लानत भेज रहे हैं और ये कोई नई बात नहीं है. ये आज के भारत का बदसूरत होता चेहरा है जहाँ गुजरते दिन के साथ संवेदनहीनता और दरंदगी हर ओर तेजी से बढ़ती जा रही, लोग थोड़ी देर के लिए अफ़सोस करते हैं और फिर भूल जाते हैं.
शायद हम हमारे आसपास जो घटित होता है या हो रहा है उससे स्वयं को अलग रखना चाहते हैं, हमें क्या करना...? कहीं भी कुछ अमानवीय हो रहा हो... वो हमारी चेतना को नहीं झकझोरता...क्यों...? ये सवाल अब बेमानी हो चुका है. हम इस तरह की घटनाओं पर अपनी टिका-टिप्पणी देने से बाज नहीं आते, और इस तरह की अमानवीयता को रोजमर्रा की बात की तरह उसकी अनदेखी कर आगे बढ़ लेते हैं...पर हम ये भूल जाते हैं कि कहीं कल हम स्वयं भी इस तरह के हादसे का शिकार हो सकते हैं.
जरुरत है अब इस तरह की अमानवीयता या संवेदनहीन होते समाज पर कुठारघात करने की. जरुरत इस तरह की सोच की जड़ में जाकर उसे ख़त्म करने की है. हम जिस देश और समाज में जी रहे हैं वहां से केवल हम लेने की ही चाह रखते हैं और नहीं मिले तो छीन लेने को लालायित रहते हैं और यही हमारी संवेदनहीनता और अमानवीयता को बढ़ावा दे रही है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब घर की चारदीवारी भी सुरक्षित नहीं रहेगी. यदि समय पर चेत कर इस मानसिक रोग को ख़त्म करें तो अच्छा होगा अन्यथा.....

वीणा सेठी..

Thursday, March 8, 2018

कविता- " इक लड़की" 8 मार्च- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर

इक लड़की

मुस्कराहट,
उसकी आँखों से उतर;
ओठों को दस्तक देती;
कानों तक फ़ैल गई थी.
जो
उसकी सच्चाई की जीत थी.
और
उसकी उपलब्धि से आई थी.
वो थी,
इक लड़की.
उसे कदम-कदम पर
ये बात
याद कराई जाती थी.
बहुत बार वह;
निराश-हताश हो,
लौट जाने की सोचती.
पर...
हर बार उसे
माँ की बात याद आती थी.
“बेटी...!
जीत सको तो;
पहले
अपने अंदर की
कमजोरी को जीतना.
कभी ये मत सोचना
तुम इक लड़की हो...
याद रखना...,
पहले तुम इंसान हो.
और
आधी लड़ाई तो,
पहले ही जीत जाओगी...
बची आधी तो
वैसे ही जीतोगी...
जब,
लक्ष्य सामने नजर आये
तो...
अर्जुन बन उसे बेध देना.
फिर देखना,
समय
और तुम्हारे चारों ओर बहता
सब थम जाएगा.
और
करतल ध्वनियों का कोलाहल
तुम्हारी सफलता को
एक आयाम दे जायेगा”.

वीणा सेठी 

Friday, December 8, 2017

राजनीतिक शुचिता...को जरुरत स्वच्छता अभियान की.

हाय जुबान का ये फिसल जाना...

हमारे राजनेताओं को पता नहीं जब-तब कौन सा वायरस काट लेता है की उनकी जुबान आयें-बाएं बकना शुरू sorry...! ऐसे मौसम का असर मुझ पर भी हो गया और मेरी जुबान को भी उस वायरस ने काट लिया. खैर... मै तो क्षमा मांग चुकीं  हूँ, हाँ...! तो बात हो रही थी नेताओं की कि उनकी जुबान प्रायः फिसल कर जाया करती है जिसकी गति  पर कोई speed breaker भी अपना असर नहीं दिखा सकता. अब गुजरात का चुनाव मुंह बाएं खड़ा है और ऐसे समय पर यदि किसी नेता की जुबान नहीं फिसली तो फिर भला कब फिसलेगी. राजनीति के गलियारों में भी आजकल ऎसी ही एक फिसली जुबान के चर्चे हर जुबान पर है. शायद अभी इस जुबान को फिसले 24 घंटे भी नहीं हुए हैं कि हर न्यूज़ चैनल पर इस फिसली जुबान के चर्चे सुने और देखें जा रहे हैं. अब आप ही बताएं इन जनाब ने इतने दिन से सुस्त पड़े न्यूज़ चनलों को आखिरकार सोते से जगा ही दिया और अपने पीछे लगा लिया. शाम होते न होते कई चनलों ने तो इस बात की debate ही छेड़ दी की उनकी जुबान वाकई फिसली थी या थोड़ा झटका खा गई. एक चैनल पर इस debate पर भिड़े भिन्न पार्टी के लोगों के प्रतिनिधियों की जुबान तो इतनी फिसल रही थी की वे तो मूल मुद्दा ही भूल गए थे गनीमत ये थी कि वे टी.वी. स्टूडियो में थे अन्यथा वे तो एक दुसरे पर कुर्सी और न जाने क्या-क्या अब तक फेंक चुके होते.
चित्र- सौजन्य गूगल.कॉम


  खैर हम भी मूल मुद्दे पर आते हैं. इन नेता जी की फिसली जुबान ने फिर से कई सैकड़ा भूली-बिसरी फिसली हुई जुबानों की यादें ताजा कर दी. एक समय था जब किसी नेता की जुबान फिसलती थी तो उसका खामियाजा उसे अपने पद से इस्तीफा देकर चुकाना पड़ता था पर... धीरे-धीरे नेताओं की इस जमात को ये भारी पड़ने वाली भूल की कीमत चुकाने के लिए लिखित माफीनामा देकर काम चलाने की आदत डाल ली और अपनी कुर्सी बचाने का इंतजाम कर लिया. और फिर.... धीरे-धीरे उनकी जुबान तो फिसलने की आदि होती चली गई और माफ़ीनामा वे कब तक देते बेचारे.. इसलिए उन्होंने अपनी फिसलती जुबान का ठीकरा मीडिया के सर फोड़ना शुरू कर दिया. अब आप ही बताएं यदि नेता जब-तब आयें-बाएं बके और वो गलती मीडिया की बताएं कि उनके कहे को मीडिया ने गलत तरीके से पेश किया तो इसमें वाकई उनकी गलती तो नहीं है. खैर राजीनीति में तो अब ये ये रोजमर्रा की बात हो चुकी है.
अब गुजरे कल में जिन भी नेता साहेब की जुबान फिसली और उन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा की भी प्रवाह नहीं की और अपनी जुबान को उनके खिलाफ फिसल जाने दिया. ये तो अंधेर है और उन्होंने और अंधेर तब का दिया जब उन्होंने इसका ठीकरा अनुवाद के सर फोड़ दिया.धन्य है नेता जी... थोड़े भी शर्मिंदा नहीं हैं. कम से कम प्रधानमंत्री के पद की गरिमा ही रख लेते. पर इसका भी इलाज हो सकता है. अब ये देश के प्रधानमंत्री को तय करना चाहिए कि उनके द्वारा चलिए गए स्वच्छता अभियान का प्रयोग वे नेताओं के लिए भी करेन. ताकि राजनितिक शुचिता का मतलब ये नेता गण समझ सकें.

जय हिंद.................................

Wednesday, October 4, 2017

रावण और गाँधी....

हम स्वयं अपने रावण हैं...गाँधी हैं...




30 सितम्बर को हमने रावण दहन किया और हर साल की तरह बुराई के ऊपर अच्छाई की जीत का जश्न मना लिया. केवल एक दिन हम इस अच्छाई-बुराई के पाठ को दोहराकर फिर साल भर के लिए भूल जाते हैं.
रावण को बुराई का प्रतीक मानकर उसके प्रति अपनी नापसंदगी हम उसका दहन कर जाहिर करते हैं, पर...
एक बात शायद हम हमेशा भूल जाते हैं कि हर इंसान में गुण-दुर्गुण दोनों होते हैं और दोनों का संतुलन किसी में भी बराबर का कभी भी नहीं रहा. ऐसा होना संभव ही नहीं है क्योंकि ऐसा होना प्रकृतिक रूप से कभी भी संभव ही नहीं होता. अगर ऐसा होता तो इतिहास की इस भूल को हम हर साल याद न करते और रावण के रूप में बुराई का पर्याय और कोई हो ही नहीं सकता - ऐसा हर हिन्दू मानता है. यही कारण है की कोई भी अपने बेटे का नाम रावण रखने से कतराता है.
 ये तो हो गई पौराणिक पात्र की बात... अब हम अपने बारे में भी कुछ बात कर्रें. हमारे लिए दूसरे के अंदर के दोष देखना आसान होता है और जब वो हमें मुखर रूप से दिखाई देता है तो...हम उसे 'रावण' के संबोधन से नवाजना नहीं भूलते, पर... हम एक बात भूल जाते हैं कि हमारे अन्दर राम और रावण दोनों ही समाहित हैं. अपने अन्दर के रावण को हम अक्सर भूल जाते हैं- या सच ये है की हम जानते हैं पर हम उसका सामना करने से बचना चाहते हैं. और दुनिया से भी ये बात छूपा कर रखना चाहते हैं. इससे क्या होगा...? हमारे अन्दर का रावण मर तो नहीं जायेगा... उसे हम जितना खुद से छुपायेंगे वो उतना ही हमारे सामने आने की कोशिश करेगा. क्या अच्छा हो....! कि हम अपने अन्दर के इस रावण को मारने  की कोशिश करें.अब सवाल है कैसे...? तो इसका एक ही सरल सा  जवाब है कि हम दूसरों के दोषों की बजाय अपनी कमियों पे ध्यान दें तो हमें दूसरों के अंदर की अच्छाई को जानने का अवसर मिलेगा.


 अब हमारे अंदर के रावण के बाद हम ये भी जान लें कि हमारे भीतर के गाँधी भी मौजूद है. बेशक आज हम गाँधी जी को 2 अक्टूबर के दिन याद करते हैं. पर... क्या इतना काफी है...? ये सवाल आप खुद से जरुर पूछें. गांधीजी को आज हमने केवल स्वच्छता अभियान से जोड़कर रख दिया है पर जीवन जीने के उनके विचारों को तो हम कब का भूल चुके हैं. ये कड़वा सच है की अच्छी बातों और आदतों के बारे में हम बात तो कर सकते हैं पर जब उन्हें अपने जीवन में उतारने की बात आती है तो हम दायें-बाएं देखने लगते हैं. वास्तव में अच्छी बातों को जीवन में लागू करने का मतलब जीवन को नियमों और अनुशासन में बांधना. अब ये आज के समय में ये अच्छाई पर एक दिन कसीदे काढ़ लेते हैं बिल्कुल वैसे ही जैसे कितने भी पाप कर लो...एक बार गंगा स्नान कर आओ, सारे पाप गंगा के मत्थे मढ़कर हम संत हो जाते हैं.
 पर... हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमें स्वयं को उत्तर देना है तो हमें तय करना है कि हम अपने अन्दर के रावण को मारकर अपने अन्दर के गाँधी को जिन्दा रखना चाहते हैं. (वीणा सेठी)

Thursday, September 28, 2017

ये सचमुच भारत है...

भारत यहाँ  बसता है...`

बचपन में पाठ्यक्रम में एक पाठ हमेशा से ही इस लाइन से शुरू होता था..." भारत गावों में बसता है,,,!!"

बात तो आज भी सत्य है क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और गाँव इसकी आत्मा है, पर ठहरिये आज के भारत को अगर आप परखेंगे तो पाएंगे कि अब भारत और भी कई जगहों में भी बसता है..नहीं भरोसा तो इसकी एक बानगी आपके सामने है:-

#  किसी भी बैंक में जाएँ वहाँ आपको पेन बंधा मिलेगा.

#  मेडिकल स्टोर में केंची बंधी मिलेगी.

#  फोटो कॉपी वाले की दूकान पर चले जाएँ वो स्टेपलर को बाँध कर रखता है.

#  प्याऊ वाले के यहाँ पानी का गिलास बंधा बिलेगा.

#  कोर्ट में वकील कुर्सी बांध कर रखते हैं, नहीं भरोसा तो किसी भी हिंदी फिल्म या टी.वी. सीरियल में देखने को मिल जाएगा और असली कोर्ट में भी.

#  Elite class वाले अपने कुत्तों को बांध कर रखते हैं, ( शायद उन्हें भरोसा है कि उनका पाला कुत्ता कहीं उन्हें ही न काट ले.)

#  लड़कियां आज कल  जहाँ देखो मुंह पर कपड़ा बांधकर चलती हैं..क्यों...? पता नहीं...!

#  भारतीय पत्नी अपने पति को अपने पल्लू से बांधे रखती है, उसका बस नहीं चलता नहीं तो पूरे समय ही बांधे रखती.

#  नेता जनता को झूठे आश्वासनों से बांधे रखता है.

कहिये हैं न भारत यहाँ भी बसता, इन सबसे तो यही लग रहा है कि इस देश में भरोसा शब्द की अर्थी उठ चुकी है. 
कहिये हैं न अपना भारत महान.

Tuesday, September 26, 2017

इंसान का इंसान न हो पाना...

इंसान इंसान नहीं है तो फिर...


बहुत सोचा कि इंसान वास्तव में खुद के बारे में क्या सोचता होगा...? अगर मुझसे जानना चाहेंगे तो केवल इतना ही कह सकूंगी कि अभी तक इसका जवाब नहीं मिला. पर सच है कि हम खुद से पूछ के देखें तो पाएंगे कि अभी हम पूरी तरह से इंसान हैं ही कहाँ...?

अगर आप इस बात से सहमत नहीं हैं तो इसकी एक बानगी आप भी देखें.:-

# हमने मंदिर की मूर्तियों को  करोड़ों के गहनों से सजा कर रखा है...और मंदिर के बाहर नन्हे फैले हाथों पर एक रूपये का सिक्का रखने से गुरेज करते हैं.

#छप्पन भोग भगवान् के सामने रखते हैं पर बाहर बैठे भिखारी को कुछ भी खाने के लिए देने के बजाय दुत्कार कर भगा देते हैं.

# मजारों पर रेशमी हरी चादर चढ़ा देते हैं , पर माजर की दहलीज के बाहर बैठे भिखारी को ठण्ड से कंपकपाते देखकर भी हमारा दिल नहीं पसीजता.

# गुरुदारे या मंदिर को बनाने के लिए हम लाखों दान दे देते हैं पर किसी ठेलेवाले या काम वाली बाई के मेहनत के पैसे मार लेते हैं. और उसकी जगह दूसरी बाई ढूँढ लेते हैं.

# दूसरों का दर्द मिटने और मानवता की खातिर कोई सलीब पर चढ़ गया था पर कोई अपने ही  माता-पिता के लिए इंसानियत को शर्मसार करते देखा है.

# भगवान् के मंदिर में हो खरे घी की ज्योत जलती रही उसे ही प्रसव के बाद बेटी पैदा करने पर खाने से मोहताज कर मार दिया जाता है.

# अपने माता-पिता को उनकी जिंदगी में भरपेट खाने को नहीं दिया वही उनके आज उनके नाम के भंडारे लगाता है.

# समाज में अपना सिर ऊँचा करने के लिए बाप ने अपनी बेटी जिस हाथों में सौपीं थी आज वही हाथ उसके जिस्म को नीला कर रहे हैं.

#सड़क में दुर्घटना में कोई घायल था और लोग उसका video बनाकर facebook और whats upपर अपलोड कर रहे थे पर उसकी सहायता को कोई नहीं आया और वो दम तोड़ गया.

# उन्होंने प्यार कर गुनाह किया और honur killing के नाम पर उनसे जीने का हक़ छीन लिया.

# बेटी अपने पैरों पर खड़े होना चाहती थी पर उसे पर उम्र  बढ़ जाने और दहेज़ ज्यादा देने के नाम पर उसे ब्याह कर उनके सपनों के पंख क़तर दिये.

# घर की औलाद ही अपने ऐशोआराम के लिए चोरी करे और इल्जाम गरीब काम वाली बाई, चौकीदार पर लगा कर जेल भेज दिया जाता है.
# दहेज़ के नाम पर बहू को जिन्दा जला या मार डाला जाता है.

# हमारे होनहारों को ये पसंद नहीं आता कि कोई लड़की उन्हें अच्छी लगती है पर  यदि वो उसे मना कर दे तो उनकी मर्दानगी को ठेस लगती है और वो उस लड़की से किसी भी प्रकार से बदला लेने पर उतारू हो जाता है. अब इसके लिए उसे लड़की से Rape ही क्यों न करना पड़े या फिर उस पर Acid Attack ही क्यों न करना पड़े.


इतना सब हम करते हैं फिर भी हम इंसान कहलाते हैं...?
 
वीणा सेठी...................

Sunday, January 1, 2017

ये साल भी अब चला, पर... नोटबंदी अब भी रह गई कहाँ-कहाँ...?

नोटबंदी के बाद भी...





नोटबंदी के बाद पी.एम. के उदगार वो भी 2016 के दरवाजे के बंद होने से पहले आयें हों और उन्हें वे भारत की जनता के लिए उपहारों की पोटली लिए लग रहे हों और जो 2017 के दरवाजे पर बेशक दस्तक देते लग रहे हैं , पर... नोटबंदी के 51 दिनों के बीत जाने के बाद भी इस तरह की बंदी से आम जनता को राहत मिलती नजर नहीं आ रही. 

मोदीजी  के नोटबंदी के फरमान और उसे लागू हुए लगभग 50 दिन बीत चले हैं और काफी कुछ उठा-पटक भी  हुई है. काले धन के लिए छापामारी का जो दौर चला उससे तो लगने लगा था मानों कि अब देश से काला धन बिलकुल ही ख़त्म हो जायेगा. इस काले धन की धर-पकड़ में लगने लगा था कि ये सही  फैसला था, बेशक इस नोटबंदी के चक्रव्यूह में 100 जानों की बलि चढ़ गई हो पर इससे देश की भलाई के लिए देशवासियों की क़ुरबानी के और बैंक में रुपयों के इन्तजार में पिछले 50 दिनों से लम्बी-लम्बी कतारों में बहुत से लोगों के सपनों भी इंतज़ार की  लम्बी कतार खड़ा कर दिया है .


मोदीजी ने नोटबंदी का जो कदम उठाया वो कालेधन को बाहर लाने ले लिए किया....? इस पर अभी भी संदेह के बादल मंडराने बंद नहीं हुए हैं. पहले तो सोचना ये है कि क्या वाकई इससे ऐसा ही होगा...? उसके बाद ये फैसला लेना की भारत की जनता को पूरी तरह से कैशलेस याने बिना पैसे का कर दिया जाए और उसके लिए डिजिटल प्रणाली का उपयोग होगा तो बात समझ से परे है. भारत की जनता जिसमें माध्यम और निम्न वर्ग इस कैशलेस सुविधा का फायदा कैसे उठा सकती है...? जिसे हमेशा से रूपया हाथ में लेकर चलने की आदत हो और एक या दो  रुपये के सौदे के लिए वो बार बार डिजिटल व्यवस्था  का उपयोग करने के चक्कर में अपनी पूंजी कब गवां बैठेगा उसे स्वयं ही पता नहीं चल पायेगा. स्मार्ट कैशलेस व्यवस्था का ये समीकरण केवल मोदीजी  या सरकार में बैठे वे चंद व्यक्ति सी समझ सकते हैं जिन्हें इससे सीधे या परोक्ष तौर पर लाभ मिलेगा.

इन सबके बाद जो गाज आम आदमी पर गिरी है वो कुछ ऐसा ही है जैसे कि सर मुंडाते ही ओले पड़ें . आम आदमी की सारी जमा पूंजी को एक तरह से बैंक में कैद कर उसे अपने ही पैसे से महरूम रखने की मानों साजिश की जा रही हो. उसे बैंक से पैसे निकालने के लिए हदबंदी तय कर दी गई है, और तो और आम भारतीय ग्रहणी के सीक्रेट बैंक पर भी मोदीजी ने सेंध मारी है... अपने पति से छिपा कर पैसे रखने की आम भारतीय नारी की सदियों से ही आदत रही है और वो ये केवल इस लिए करती थी कि मुसीबत या परेशानी के वक्त घर के किसी भी सदस्य को पैसे की मदद कर सके, अब जब अचानक से 500 और 1000 रुपये के नोट को बंद करने की घोषणा हुई तो उनके गुपचुप खाते पति और परिवार के सामने आ गए और अब तो उनका ये साधन भी हाथ से निकल गया है जिसके सहारे वे अपने आप को कहीं न कहीं मजबूत पाती थीं. वे न डिजिटल व्यस्था के बारे में कुछ जानती हैं और न ही वे इसके बारे में समझना चाहेंगी... अपने आप को चूल्हा-चक्की में वे इतना झोंक चुकी हैं की वे इससे अधिक और कुछ नहीं सोचना चाहती.
एक बात और भी चिंताजनक है और वो ये है की हमारे यहाँ साइबर क्राइम को रोकने का कोई सीधा कानून अभी तक नहीं बना है और अभी तो केवल ATM का जिस तरह से अनाप-शनाप उपयोग हो रहा है और साइबर अपराधी जिस तरह से लोंगों के ATM में सेंघमारी कर रहे हैं उस के लिए तो पुलिस के पास कोई सटीक क़ानून और हथियार उपलब्ध नहीं है तो जब पूरे भारत की जनता को digitizazation के हवाले कर दिया जायेगा तो आम आदमी का तो पता नहीं क्या होगा पर साइबर अपराधियों की चांदी तो निश्चित रूप से हो जाएगी.

एक प्रश्न और भी है आखिर आम आदमी जो अपनी रोजी-रोटी की जद्दोजहद में लगा रहता है, का पैसा बैंकों के हवाले क्यों किया जा रहा है...? वो अपना पैसा या पूंजी अपने पास क्यों नहीं रख सकता....? उसके पास कहाँ इतना वक्त है की अपने सफ़ेद पैसे को काला कर सके...? क्या उनका पैसा बैंकों में रोककर कुछ पूंजीपतियों के हवाले कर देने का इरादा है...?

क्या वास्तव में ऐसा करने से काले धन की आवजाही को रोका जा सकेगा....? क्या इससे नकली नोट छापने का धंधा बंद हो जायेगा....? क्या ये नोटबंदी की घोषणा एन उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले करने के पीछे दूसरी राजनितिक पार्टियों के द्वारा काले धन को चुनाव में इस्तेमाल करने से रोकना था...? ये सवाल इस देश की आम जनता के मन में हैं.

कुछ प्रश्न हैं जो मोदीजी के इस कदम को पूरी तरह से उचित नहीं ठहराते.

# काले धन के नाम आम आदमी के ऊपर तो शिकंजा पूरी तरह से कसा जा चुका है और उसे पूरी तरह से खंगालने का काम भी सरकारी तंत्र कर रहा है..ये एक अच्छा कदम हो सकता है यदि ये पूरी तरह से पारदर्शी हो.


# देश के नेता, सरकारी अधिकारी और कुछ एक पूंजीपतियों के ऊपर अभी तक ये शिकंजा नहीं कसा गया है ...क्यों...? वास्तव में वे काले धन के भरपूर स्तोत्र हैं- ये पूरा भारत और वे स्वयं भी जानते हैं. जब तक मोदी जी इनपर अपनी दृष्टि नहीं साधते तब तक उनके इस नेक काम को पूरा देश संशय की निगाह से ही देखेगा और इस विषय पर विपक्ष के राजनितिक दलों द्वारा प्रश्न उठाये जाने पर भी मोदी जी मौन साधे बैठ हैं पर ऐसा कब तक चलेगा...?
बेशक मोदीजी का नोटबंदी पर उठाया कदम सही हो सकता है और इसमें उनका कोई निजी स्वार्थ भी नहीं होगा, पर... उन्हें आम जनता के मन में उठ रहे इन सवालों का जवाब देने सामने आना ही होगा अन्यथा वे आम लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता को दाव पर लगा 
 बैठेंगे.


(वीणा सेठी)


 स्त्रोत्र -गूगल प्लस