Sunday, March 11, 2018

शर्मसार होती इंसानियत..

इंसानियत का गिरता ग्राफ ...

आज का दिन वाकई एक काले दिन के रूप में याद किया जाना था. सबेरे जब समाचार पत्रों में इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले इस  समाचार ने ख़त्म होती मानवीय संवेदना का नंगा सच सबके सामने रख दिया और ये सब उस इंसान ने किया जो एक ऐसे पेशे में है जो इंसान की जान बचाने के लिए भगवान् के दर्जे से नवाज़ा जाता है. झाँसी के मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों की बेहद अमानवीय तस्वीर जब सामने आई जब एक बस कंडक्टर की एक सड़क दुर्घटना में टांग कट गई और उसकी कटी टांग का उन्होंने तकिया बनाकर उसके सिर के नीचे रख दिया. और उसे घंटों स्ट्रेचर पर लिटाये रखा और बहुत जद्दोजहद के बाद उसके लिए बेड का इंतजाम हुआ और उसकी गंभीर हालत जे बावजूद काफी देर बाद उसका इलाज किया गया.
  ये चित्र इतना लोमहर्षक है कि देखकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं पर इस कंडक्टर के साथ इतना संवेदनहीन और दरंदिगी से भरा व्यवहार करने वाले डॉक्टर के अन्दर का इंसान तो सचमुच मर चुका है. मीडिया दिन भर इसी न्यूज़ की क्लिपिंग चलाकर अपनी-अपनी चैनल की रेटिंग बढाने की कोशिश में लगी रही...उनके लिए ये आज के दिन की सनसनीखेज न्यूज़ थी और कल सब भूल चुके होंगे और मीडिया भी भूल जायेगा कि आने वाले कल के बाद उस कंडक्टर का क्या होगा. आज तो सब उस डॉक्टर को लानत भेज रहे हैं और ये कोई नई बात नहीं है. ये आज के भारत का बदसूरत होता चेहरा है जहाँ गुजरते दिन के साथ संवेदनहीनता और दरंदगी हर ओर तेजी से बढ़ती जा रही, लोग थोड़ी देर के लिए अफ़सोस करते हैं और फिर भूल जाते हैं.
शायद हम हमारे आसपास जो घटित होता है या हो रहा है उससे स्वयं को अलग रखना चाहते हैं, हमें क्या करना...? कहीं भी कुछ अमानवीय हो रहा हो... वो हमारी चेतना को नहीं झकझोरता...क्यों...? ये सवाल अब बेमानी हो चुका है. हम इस तरह की घटनाओं पर अपनी टिका-टिप्पणी देने से बाज नहीं आते, और इस तरह की अमानवीयता को रोजमर्रा की बात की तरह उसकी अनदेखी कर आगे बढ़ लेते हैं...पर हम ये भूल जाते हैं कि कहीं कल हम स्वयं भी इस तरह के हादसे का शिकार हो सकते हैं.
जरुरत है अब इस तरह की अमानवीयता या संवेदनहीन होते समाज पर कुठारघात करने की. जरुरत इस तरह की सोच की जड़ में जाकर उसे ख़त्म करने की है. हम जिस देश और समाज में जी रहे हैं वहां से केवल हम लेने की ही चाह रखते हैं और नहीं मिले तो छीन लेने को लालायित रहते हैं और यही हमारी संवेदनहीनता और अमानवीयता को बढ़ावा दे रही है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब घर की चारदीवारी भी सुरक्षित नहीं रहेगी. यदि समय पर चेत कर इस मानसिक रोग को ख़त्म करें तो अच्छा होगा अन्यथा.....

वीणा सेठी..

Thursday, March 8, 2018

कविता- " इक लड़की" 8 मार्च- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर

इक लड़की

मुस्कराहट,
उसकी आँखों से उतर;
ओठों को दस्तक देती;
कानों तक फ़ैल गई थी.
जो
उसकी सच्चाई की जीत थी.
और
उसकी उपलब्धि से आई थी.
वो थी,
इक लड़की.
उसे कदम-कदम पर
ये बात
याद कराई जाती थी.
बहुत बार वह;
निराश-हताश हो,
लौट जाने की सोचती.
पर...
हर बार उसे
माँ की बात याद आती थी.
“बेटी...!
जीत सको तो;
पहले
अपने अंदर की
कमजोरी को जीतना.
कभी ये मत सोचना
तुम इक लड़की हो...
याद रखना...,
पहले तुम इंसान हो.
और
आधी लड़ाई तो,
पहले ही जीत जाओगी...
बची आधी तो
वैसे ही जीतोगी...
जब,
लक्ष्य सामने नजर आये
तो...
अर्जुन बन उसे बेध देना.
फिर देखना,
समय
और तुम्हारे चारों ओर बहता
सब थम जाएगा.
और
करतल ध्वनियों का कोलाहल
तुम्हारी सफलता को
एक आयाम दे जायेगा”.

वीणा सेठी