Tuesday, July 31, 2012

गुलामी से भरी भारतीय मानसिकता


'ब्रेन-ड्रेन व भारतीय मानसिकता

 2000 हजार सालों तक भारत पर विदेशी राज्य करते रहे. यवन, हूण,कुषाण,शक,खिलजी ,मुग़ल,पुर्तगाली और अंत में अंग्रेजों ने एक के बाद एक भारत पर आक्रमण किया और यहाँ कि संपदा को लूटा और एक लम्बे समय तक 2000  सालों तक भारत को गुलाम रखा.भारत का क्रमिक इतिहास यही कहता है.


 
आजतक हमें सब बातें कि पर इस सत्य से हमेशा नजर चुराते रहे कि आखिर क्या कारण है कि हम 2000 साल तक गुलाम रहे? वास्तविकता यही है कि यह गुलामी अपने स्वभावगत कमजोरियों के कारण हमने स्वीकार कि और झुझारुपन के अभाव में आज भी स्वतंत्र होते हुए भी इस मानसिकता से छुटकारा नहीं पा सके. 'सत्य' पर सम्भाषण तो हमे अच्छा लगता है पर 'सच का सामना' करने से हम घबराते हैं. वास्तव में हमारी  सामाजिक  और राजनितिक व्यवस्था में ही गुलामी के बीज हैं.

अंग्रेज तो इस देश से चले गए पर अपनी लेपालक संतानें यही छोड़ गए, जो आज भी काया से भारतीय होते हुए भी मन से अंग्रेजों कि गुलाम है और पश्चिम का गुणगान करने में चाटुकारिता कि सारी हदें तोड़ देती है.


मानसिक गुलामी हमारे व्यवहार व कियाकलापों में झलकती है. प्रतिभाओं कि भारत में  कमी नहीं, बल्कि पूरी दुनिया भारतीय प्रतिभा का लोहा मान चुकी है पर अपने घर में इन प्रतिभाओं को यथोचित सम्मान नहीं मिलता और वे पलायन कर जाती हैं. यही कारण है  कि ये प्रतिभाएं दूसरे देशों को लाभान्वित कर रही हैं. जब इन्हें वहां सम्मान मिलता है और दुनिया इन्हें पहचानने लगती है तब हमारी नींद खुलती है, तब हम इस फारेन रिटर्न प्रतिभा को हाथों हाथ लेते हैं.

क्या ये हमारी हजारों सालों कि मानसिक गुलामी का ज्वलंत प्रमाण नहीं? जब तक हमारी प्रतिभा को पश्चिम का ठप्पा नहीं लग जाता हमें उनकी प्रतिभा दिखाई ही नहीं देती. हम आखिर कब तक स्वयं को पश्चिम के चश्में से देखते रहेंगे?

इस मानसिक गुलामी के चलते ही हम अपने महत्त्व को कम करके आंकते हैं.एक पढ़ा लिखा व्यक्ति हमें कम पढ़े लिखे अंग्रेजी बोलने वाले सज्जन के सामने गवांर लगता है. ज्यों ही कोई अंग्रेजी में वार्तालाप करता है हमारी निगाहों में उसके लिए एक विशेष सम्मान झलकने लगता है. और हम उसकी एक कृपा दृष्टि पाने की होड़ में लग जाते हैं 
 
अब वक्त आ गया है जब हमें अपनी इस सड़ी-गली मानसिकता को अलविदा कहना होगा अन्यथा प्रतिभा संपन्न होते हुए भी हम पिछड़ जायेंगे और हमारी कुशलता जिस पर भारत सरकार करोड़ों रुपिया खर्च करके देश के लिए तैयार करती है उसका लाभ दूसरे देश उठा लेंगे. हमे भारतीय होने का गर्व होना चाहिए न कि शर्म.
वीणा सेठी


Wednesday, July 18, 2012

अलविदा राजेश खन्ना ................एक भावभीनी श्रद्धांजलि

सफ़र

 
जिंदगी एक सफ़र है,
जो शुरू हुआ है तो खत्म भी होगा;
आज मेरा नंबर है,
कल किसी और का होगा.
यहाँ आना जाना तो लगा ही रहेगा;
बात केवल इतनी है;
किसी का जाना दिल दुख देगा,
किसी का जाना दिल हिला देगा.

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किसी के जाने से हम आंसू बहाया करते हैं,
किसी के जाने से हम मुस्कराया  करते हैं.
पर दोनों ही जाने में फर्क इतना है;
एक के जाने में खोना लिखा होता है.
और एक के जाने में मिलन होता है.

Wednesday, July 11, 2012

हमारी सार्वजानिक मान्यताएँ


हमारी सार्वजानिक मान्यताएँ 


भारतीय जीवन रस-रंग व उत्सव का जीवन है. जीवन व्यक्तिगत व सार्वजनिक दो रूपों मैं विभक्त है, उसी के अनुसार ही हमारी व्यक्तिगत  और सार्वजनिक सोच  एवं मान्यताएं भी  हैं.सार्वजानिक मान्यताएं काफी प्रचलित तथा प्रयोगधर्मिता  के दायरे में आती हैं, प्रायः यही लगता है कि ये सार्वजनिक शिष्टाचार का उल्लंघन कर रही हों. इन मान्यताओं का दायरा प्रायः सम्पूर्ण भारत वर्ष में फैला हो सकता है.  भारत के दक्षिण में यह संकुचित रूप में प्रचलित हो किन्तु उत्तर एवं मध्य भारत में यह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है. भारत में यदि धर्मनिरपेक्षता और पूर्ण प्रजातंत्र देखना हो तो तो इन मान्यताओं में आप खुलकर देख सकते हैं.
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आइये कुछ  सार्वजनिक मान्यताओं कि जिनसे पाठक गण भी प्रायः विदित हैं फिर से एक बार जान लें:-
लघुशंका का निवारण:- प्रायः  आम आदमी शंकाओं से घिरा रहता है और लाघुशंकाओं से तो और भी अधिक. ये शंका घर से बाहर निकलकर ही घेरती हैं  और व्यक्ति उसके निवारण के लिए प्रयासरत रहता है और वास्तव में इस शंका का निवारण जब तक न हो इन्सान सहज ही नहीं हो पाता . किसी भी शहर के गली, दीवारों कि आड़, वृक्ष के पीछे कहीं भी लोग अपनी इस शंका का निवारण करते देखे जा सकते हैं और ये भारत के सार्वजनिक जीवन का हिस्सा इस कदर बन चुका है कि आम सहमती इसे मान्यता के रूप में स्थापित कर चुकी है जिसका विरोध करने का साह्स किसी में भी नहीं.

अभिनन्दन कि परम्परा:- मात अभिनन्दन कि परम्परा भारत में बहुत पुरानी है. ये संस्कारों में रची- बसी है. माँ के प्रति आदर कि भावना घर और सार्वजनिक जीवन में प्रत्यक्ष देखी जा सकती  है और ये इतनी  अधिक स्थापित हो चुकी है कि प्रेम या क्रोध में होने पर  गाली के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग में लाई जाती है और इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है. लोगों में यह प्रचलन बेशक शर्मनाक  लग सकता है किन्तु यह सामाजिक रूप से बुरा  नहीं लगता यदि किसी को बुरा भी लगे तो विरोध करने के लिए इस मान्यता में स्थान ही नहीं है. और तो और बोलीवुड कि फिल्मों में भी आजकल ये एक फैशन के रूप में आ रहा है. माँ का गाली के रूप में प्रयोग एक ऐसे देश में जहाँ नारी कि पूजा करने कि हिदायत दी गई हो वो भी वेदों में तो इस तरह का आचरण वाकई शर्मनाक  है और इस पर लगाम स्वविवेक से ही लगे जा सकती है. 

रंगाई-छपाई कि कारीगरी:- छपाई प्रथा के रूप  में सर्वसाधारण में व्याप्त है. राह चलते कहीं भी छपाई का कार्क्रम करने कि पूरी स्वंत्रता प्राप्त है. ये वह क्षेत्र  है जिसे कानूनन  अपराध नहीं माना जाता है ये बात अलग है कि सार्वजनिक स्वच्छता हमारी किताबों में लिखी है परन्तु वह भी सिर्फ पढ़ने के लिए शेष है. आइये आपको छपाई के प्रकार बताएं- रास्ते चलते आप कही भी थूक सकते हैं और अपनी छपाई करके किसी को भी कृतार्थ कर सकते हैं. क्या मजाल कोई इसका विरोध कर सके क्योकिं इसके लिए इस चलन का प्रदर्शन करने वाला इतना समय ही नहीं देता कि आप सम्हल जाये, ये छपाई बिना पूर्व सूचना के कि जाती है. दूसरी छपाई कुल्ले के रूप में होती है, जिसका क्षेत्र कुछ विस्तृत होता है. तीसरी तरह कि छपाई सबसे खतरनाक होती है, पान खाकर अक्सर लोग उसे थूकने के मर्ज के शिकार होते हैं और जब भी वे इसे मुंह से बाहर फेकते हैं, इसकी छपाई लाल रंग में अवतरित होती है और स्थाई प्रभाव छोडती है. इस सार्वजनिक मान्यता का भुक्तभोगी विरोध के रूप में  गाली- गुफ्तार कर ले पर इसे स्वीकार तो करना ही पड़ेगा. 
मुफ्त की रंगाई -छपाई 
कचरे की मान्यता:- कचरा फेकने की प्रतियोगिता हर गाली-कूंचे व हर शहर में देखी  जा सकती है.अपने घर का कचरा किसी के भी घर के सामने या कहीं  भी ये सोच कर फेंका  जा सकता है की सारा भारत हमारा है बल्कि हम तो विश्व बंधुत्व की भावना भी रखते हैं. अगर कोई इस अपनत्व की भावना को न समझकर क्रोध करे तो उसकी नादानी पर गुस्सा न करके उसे बताये की ये आपका अपनापन दिखाने का तरीका है और  इससे अच्छा तरीका  कोई और हो ही नहीं सकता . यदि अगली बार कोई अपने आस-पड़ोस से अपनापन जाहिर करना चाहता हो तो अपने घर का कचरा उनके घर के सामने फेंक आये और उन्हें कृतार्थ करें बाकि इस मान्यता का अगला  चरण वे अपने आप तय कर लेंगे.
सहूलियत का कचरा 
  ये हैं हमारी  कुछ सार्वजानिक मान्यताएं आशा है यदि आप ने इन्हें अभी तक अमल में  नहीं लाया है तो जल्दी ही इन्हें आजमाएंगे जरुर.


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