Wednesday, July 11, 2012

हमारी सार्वजानिक मान्यताएँ


हमारी सार्वजानिक मान्यताएँ 


भारतीय जीवन रस-रंग व उत्सव का जीवन है. जीवन व्यक्तिगत व सार्वजनिक दो रूपों मैं विभक्त है, उसी के अनुसार ही हमारी व्यक्तिगत  और सार्वजनिक सोच  एवं मान्यताएं भी  हैं.सार्वजानिक मान्यताएं काफी प्रचलित तथा प्रयोगधर्मिता  के दायरे में आती हैं, प्रायः यही लगता है कि ये सार्वजनिक शिष्टाचार का उल्लंघन कर रही हों. इन मान्यताओं का दायरा प्रायः सम्पूर्ण भारत वर्ष में फैला हो सकता है.  भारत के दक्षिण में यह संकुचित रूप में प्रचलित हो किन्तु उत्तर एवं मध्य भारत में यह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है. भारत में यदि धर्मनिरपेक्षता और पूर्ण प्रजातंत्र देखना हो तो तो इन मान्यताओं में आप खुलकर देख सकते हैं.
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आइये कुछ  सार्वजनिक मान्यताओं कि जिनसे पाठक गण भी प्रायः विदित हैं फिर से एक बार जान लें:-
लघुशंका का निवारण:- प्रायः  आम आदमी शंकाओं से घिरा रहता है और लाघुशंकाओं से तो और भी अधिक. ये शंका घर से बाहर निकलकर ही घेरती हैं  और व्यक्ति उसके निवारण के लिए प्रयासरत रहता है और वास्तव में इस शंका का निवारण जब तक न हो इन्सान सहज ही नहीं हो पाता . किसी भी शहर के गली, दीवारों कि आड़, वृक्ष के पीछे कहीं भी लोग अपनी इस शंका का निवारण करते देखे जा सकते हैं और ये भारत के सार्वजनिक जीवन का हिस्सा इस कदर बन चुका है कि आम सहमती इसे मान्यता के रूप में स्थापित कर चुकी है जिसका विरोध करने का साह्स किसी में भी नहीं.

अभिनन्दन कि परम्परा:- मात अभिनन्दन कि परम्परा भारत में बहुत पुरानी है. ये संस्कारों में रची- बसी है. माँ के प्रति आदर कि भावना घर और सार्वजनिक जीवन में प्रत्यक्ष देखी जा सकती  है और ये इतनी  अधिक स्थापित हो चुकी है कि प्रेम या क्रोध में होने पर  गाली के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग में लाई जाती है और इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है. लोगों में यह प्रचलन बेशक शर्मनाक  लग सकता है किन्तु यह सामाजिक रूप से बुरा  नहीं लगता यदि किसी को बुरा भी लगे तो विरोध करने के लिए इस मान्यता में स्थान ही नहीं है. और तो और बोलीवुड कि फिल्मों में भी आजकल ये एक फैशन के रूप में आ रहा है. माँ का गाली के रूप में प्रयोग एक ऐसे देश में जहाँ नारी कि पूजा करने कि हिदायत दी गई हो वो भी वेदों में तो इस तरह का आचरण वाकई शर्मनाक  है और इस पर लगाम स्वविवेक से ही लगे जा सकती है. 

रंगाई-छपाई कि कारीगरी:- छपाई प्रथा के रूप  में सर्वसाधारण में व्याप्त है. राह चलते कहीं भी छपाई का कार्क्रम करने कि पूरी स्वंत्रता प्राप्त है. ये वह क्षेत्र  है जिसे कानूनन  अपराध नहीं माना जाता है ये बात अलग है कि सार्वजनिक स्वच्छता हमारी किताबों में लिखी है परन्तु वह भी सिर्फ पढ़ने के लिए शेष है. आइये आपको छपाई के प्रकार बताएं- रास्ते चलते आप कही भी थूक सकते हैं और अपनी छपाई करके किसी को भी कृतार्थ कर सकते हैं. क्या मजाल कोई इसका विरोध कर सके क्योकिं इसके लिए इस चलन का प्रदर्शन करने वाला इतना समय ही नहीं देता कि आप सम्हल जाये, ये छपाई बिना पूर्व सूचना के कि जाती है. दूसरी छपाई कुल्ले के रूप में होती है, जिसका क्षेत्र कुछ विस्तृत होता है. तीसरी तरह कि छपाई सबसे खतरनाक होती है, पान खाकर अक्सर लोग उसे थूकने के मर्ज के शिकार होते हैं और जब भी वे इसे मुंह से बाहर फेकते हैं, इसकी छपाई लाल रंग में अवतरित होती है और स्थाई प्रभाव छोडती है. इस सार्वजनिक मान्यता का भुक्तभोगी विरोध के रूप में  गाली- गुफ्तार कर ले पर इसे स्वीकार तो करना ही पड़ेगा. 
मुफ्त की रंगाई -छपाई 
कचरे की मान्यता:- कचरा फेकने की प्रतियोगिता हर गाली-कूंचे व हर शहर में देखी  जा सकती है.अपने घर का कचरा किसी के भी घर के सामने या कहीं  भी ये सोच कर फेंका  जा सकता है की सारा भारत हमारा है बल्कि हम तो विश्व बंधुत्व की भावना भी रखते हैं. अगर कोई इस अपनत्व की भावना को न समझकर क्रोध करे तो उसकी नादानी पर गुस्सा न करके उसे बताये की ये आपका अपनापन दिखाने का तरीका है और  इससे अच्छा तरीका  कोई और हो ही नहीं सकता . यदि अगली बार कोई अपने आस-पड़ोस से अपनापन जाहिर करना चाहता हो तो अपने घर का कचरा उनके घर के सामने फेंक आये और उन्हें कृतार्थ करें बाकि इस मान्यता का अगला  चरण वे अपने आप तय कर लेंगे.
सहूलियत का कचरा 
  ये हैं हमारी  कुछ सार्वजानिक मान्यताएं आशा है यदि आप ने इन्हें अभी तक अमल में  नहीं लाया है तो जल्दी ही इन्हें आजमाएंगे जरुर.


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9 comments:

  1. आपकी पोस्ट कल 12/7/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

    चर्चा - 938 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  2. मान्यताये जब तक मानी जाए सही है..... जब थोपी जाने लगे गलत....!!

    अच्छा लिखा है आपने... बधाई !!

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  3. ये भारत है मेरे दोस्त
    अच्छी बुरी - हमारी मान्यताएं

    इक अच्छा उद्देश्य है, लेखक का आभार ।

    नई चेतना के लिए, होना है तैयार ।

    होना है तैयार, मिटाना है यह शंका ।

    पर्यावरण अन्यथा, फूंक देगी यह लंका ।

    चलो करें शुरुवात, नई पीढ़ी तो जागे ।

    आदत से मजबूर, जागते नहीं अभागे ।।।

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    1. बरसों की आदत मिनिटों में न जाएगी,
      बस दुआ करें की कुछ तो सुधर जाएगी.
      वीणा

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  4. भिन्न सभी की मान्यता, मिन्न-भिन्न परिवेश।
    गुलदस्ता सा लग रहा, अपना भारत देश।।

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  5. इन्हें मान्यता कहैं या आदतें जो कुछ अच्छी तो कुछ बुरी भी हो सकती है |
    आशा

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  6. इनमे से कुछ परम्पराओं का मसलन माँ की गाली का भूमंडलीकरण होने लगा है इस योगदान के लिए मुम्बैया फिल्मों का सदैव याद रखा जाएगा .सिंगापुर आके सारे थुक्कड़ थूक मारना भूल जातें हैं .और सउदीअरबिया में भीगी बिल्ली बन जातें हैं घर में तो बिल्ली भी शेर हो जाती है .अमरीका में ये शराब पीके गाडी चलाना भूल जाते हैं .अरबाज़ और सलमान खान का ड्राइवर भी सीधा हो जाता है .

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    1. आपने ठीक कहा, मैंने किसी को भी इन मान्यताओं को महिमामंडित करते ही देखा है, शर्मसार होते नहीं देखा बल्कि जो लोग होते हुए देखते हैं वे भी अनदेखी करके आगे चल देते हिं.

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