Friday, June 29, 2012

अतिक्रमण: एक अनैतिक अधिकार


अतिक्रमण: एक अनैतिक अधिकार

सरकारी सम्पति: व्यक्तिगत कब्ज़ा

भारत के महानगर से लेकर गाँवों तक सरकारी जमीन पर कोई भी इन्सान कभी भी अपने व्यक्तिगत ऊपयोग हेतु कब्ज़ा कर लेता है और दूसरों को उसकी इस हरकत से कोई परेशानी हो सकती है इस विषय पर वह सोचना ही नहीं चाहता. पिछले २०-२५ सालों में इस आदत ने अधिकार की शक्ल अख्तियार कर ली है. और अब ये जीवन का हिस्सा बन चुकी है.
अतिक्रमण एक महामरी की शक्ल ले चुका है इससे पहले की ये
लाइलाज बीमारी बन जाए , इसके लिए सरकार व आम नागरिक को अपना कर्त्तव्य समझकर इस आदत का परित्याग कर देना चाहिए, अन्यथा जब सरकारी अमला डंडे की भाषा में समझाएगा तो विरोध भी काम नहीं आएगा.और सरकार, नगर पालिका तथा नगर निगम को भी इस तरह की गतिविधियों पर समय रहते अंकुश लगाना चाहिए.


भारत में यूँ तो 4 मौसम होते हैं, ग्रीष्म , वर्षा, शरद और बसंत. पर इन सबके ऊपर एक ऋतु और है जो भारत के हर नगर और गाँव में छाई है. जिसका नाम है 'अतिक्रमण'. भारत में ये प्रथा बनती जा रही है, आप जहाँ जायेंगे अतिक्रमण ही नजर आएगा. लगता है वो दिन दूर नहीं जब इसे संविधान द्वारा  नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में शामिल कर लिया जायेगा. जिस व्यक्ति को देखो वो सकरी सम्पति, जमीं, यहाँ तक की हवा- पानी का अतिक्रमण करने का मानो अधिकार प्राप्त कर चूका है.
अतिक्रमण 
जिस भी व्यक्ति के पास अपना मकान या दुकान है वो उसके आगे की खाली पड़ी जमीन जो की अमूमन सरकारी ही होती है को अपनी व्यक्तिगत जायदाद मानकर उपयोग में लाने लगते हैं. यही कारण है की सरकारी नालियां, गलियां ,सड़कें यानें की जो भी सरकारी जगह है सब संकुचित होती जा रही है और लोगों की जगहों का दायरा अपनेआप बढ़ता जा रहा है. अतिक्रमण की ये बेशर्म  मानसिकता का ये जिन्दा साक्ष्य हर एक के सामने है क्योंकि अधिकतर इस बेशर्मी को जी रहे हैं.

भारत के किसी भी शहर, नगर या गाँव में चले जाइये, अतिक्रमण का नजारा आम देखने को मिल जायेगा. दुकानदार अपनी दुकान का सामान दुकान से बाहर सड़क के उपर भी रखने में गुरेज नहीं करते, सरकारी नालियीं भी उनके  अतिक्रमण की शिकार हैं.उसे भी ढांककर उसपर दुकान की सीढियाँ  या सामान रखने की जगह निकल लेते हैं. यहाँ-वहां वाहन खड़े करके ट्रेफिक में बाधा डालना बड़ी आम सी आदत है. मजेदार बात ये है की किसी को इस से कोई परेशानी नहीं होती, लोग अनदेखी  करके  निकल जाते हैं. जो अतिक्रमण नहीं कर पाते वो अपने पालतू जानवरों को खुला छोड़कर अपनी इच्छा पूरी कर लेते हैं.
भारतीय
जनमानस की मानसिकता इस कदर ख़राब हो चुकी है की वह नागरिक कर्तव्यों को ही भूल गई है जिसमे 'सार्वजानिक सम्पति के दुरुपयोग को रोकने' का कर्तव्य भी शामिल है. अब तो हाल ये है की कहाँ सरकारी  जमीन है और कहाँ व्यक्तिगत पता ही नहीं चलता.
रकारी भूमि पर धार्मिक स्थल का निर्माण धड़ल्ले से हो रहा है, धार्मिक आस्था के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने में लोग लगे हैं. अतिक्रमण की खुली छूट के चलते ही लोग अब इसको अपना अधिकार समझकर जीने लगे है, यही कारण है की जब भी अतिक्रमण विरोधी मुहीम चलता है तो विरोध की पुरजोर आंधी के सामने टिक नहीं पाता. भारतीय  जनमानस की ये मानसिकता बेहद लज्जाजनक है, पर वे इस बात को समझने क्या  मानने को तैयार नहीं. अगर ऐसे ही अतिक्रमण रूपी अधिकार का प्रयोग होता रहा और प्रशासन ऑंखें मूंदे पड़े रहा और मौन बैठा रहा तो वह दिन दूर नहीं जब सरकारी जमीन, सम्पति सब लोगों के कब्जे में बिना हस्तांतरण व रजिस्ट्री कराए पहुँच जाएगी और फिर जब अतिक्रमण विरोधी कार्यवाही करने की सरकारी अमले की बारी आएगी तो उसे गत वर्षों में जो विरोध दिल्ली तथा गाजियाबाद में सहना पड़ा वैसे ही हर जगह न सहना पड़े.
हमें भी अपनी बेशर्म मानसिकता को छोड़ना होगा और इस अघोषित मौलिक अधिकार का परित्याग करना चाहिए और संविधान के नागरिक कर्तव्यों में से सार्वजानिक सम्पति की रक्षा का कर्तव्य का पालन करना चाहिए. इसके साथ ही सरकार को सोये नहीं रहना चाहिए बल्कि जहाँ भी अतिक्रमण हो रहा हो उसे समय रहते रोके और समय समय पर सरकारी जमीन का निरिक्षण व आकलन करते रहे.







1 comment:

  1. BILKUL SAHMAT..ACHCHHI PRASTUTI.
    MAGAR EK BAAT AUR SACH HAI ISME SARKAR KA BHI BARABAR KA DOSH HAI..AAPKO KYA LAGTA HAI.

    ISE BHI PADHEN:-
    "कुत्ता घी नहीं खाता है "
    http://zoomcomputers.blogspot.in/2012/06/blog-post_29.html
    अपने अकेलापन को दूर करने के लिए आपको कितने लोंगो की आवश्यकता पड़ेगी?.....अरशद अली
    http://dadikasanduk.blogspot.in/2012/06/blog-post.html

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